वांछित मन्त्र चुनें

अर्थ॒मिद्वा उ॑ अ॒र्थिन॒ आ जा॒या यु॑वते॒ पति॑म्। तु॒ञ्जाते॒ वृष्ण्यं॒ पय॑: परि॒दाय॒ रसं॑ दुहे वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

artham id vā u arthina ā jāyā yuvate patim | tuñjāte vṛṣṇyam payaḥ paridāya rasaṁ duhe vittam me asya rodasī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अर्थ॑म्। इत्। वै। ऊँ॒ इति॑। अ॒र्थिनः॑। आ। जा॒या। यु॒व॒ते॒। पति॑म्। तु॒ञ्जाते॒ इति॑। वृष्ण्य॑म्। पयः॑। प॒रि॒ऽदाय॑। रस॑म्। दु॒हे॒। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥ १.१०५.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:105» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:20» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजा और प्रजा कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (अर्थिनः) प्रशंसित प्रयोजनवाले जन (अर्थम्) जो प्राप्त होता है उसको (वै) ही (पतिम्) पति का (जाया) सम्बन्ध करनेवाली स्त्री के समान (आ, युवते) अच्छे प्रकार सम्बन्ध करते हैं (उ) या तो जैसे राजा-प्रजा जिस (वृष्ण्यम्) श्रेष्ठों में उत्तम (पयः) अन्न (इत्) और (रसम्) स्वादिष्ठ ओषधियों से निकाले रस को (परिदाय) सब ओर से देके दुःखों को (तुञ्जाते) दूर करते है वैसे उस-उस को मैं भी (दुहे) बढ़ाऊँ। शेष अर्थ प्रथम मन्त्र में कहे के समान जानना चाहिये ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे स्त्री अपनी इच्छा के अनुकूल पति को वा पति अपनी इच्छा के अनुकूल स्त्री को पाकर परस्पर आनन्दित करते हैं वैसे प्रयोजन सिद्ध कराने में तत्पर बिजुली, पृथिवी और सूर्य प्रकाश की विद्या के ग्रहण से पदार्थों को प्राप्त होकर सदा सुख देती है, इसकी विद्या को जाननेवालों के सङ्ग के विना यह विद्या होने को कठिन है और दुःख का भी विनाश अच्छी प्रकार नहीं होता, इससे सबको चाहिये कि इस विद्या को यत्न से लेवें ॥ २ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

यथार्थिनोऽर्थवै पतिंजायेव आयुवते यथा राजप्रजे यद् वृष्ण्यं पयो रसमित् परिदाय दुःखानि तुञ्जाते तथा तच्चाहमपि दुहे। अन्यत् पूर्ववत् ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्थम्) य ऋच्छति प्राप्नोति तम् (इत्) अपि (वै) खलु (उ) वितर्के (अर्थिनः) प्रशस्तोऽर्थः प्रयोजनं येषान्ते (आ) (जाया) स्त्रीव (युवते) युनते बध्नन्ति। अत्र विकरणव्यत्ययेन शः। (पतिम्) स्वामिनम् (तुञ्जाते) दुःखानि हिंस्तः। व्यत्ययेनात्रात्मनेपदम्। (वृष्ण्यम्) वृषसु साधुम् (पयः) अन्नम्। पय इत्यन्नना०। निघं० २। ३। (परिदाय) सर्वतो दत्वा (रसम्) स्वादिष्ठमोषध्यादिभ्यो निष्पन्नं सारम् (दुहे) वर्धयेयम् (वित्तं, मे०) इति पूर्ववत् ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा स्त्रीष्टं पतिं प्राप्य पुरुषश्चेष्टां स्त्रियं वाऽऽनन्दयतस्तथाऽर्थसाधनतत्परा विद्युत्पृथिवीसूर्यप्रकाशविद्यां गृहीत्वा पदार्थान् प्राप्य सदा सुखयति नह्येतद्विद्याविदां सङ्गेन विनैषा विद्या भवितुमर्हति दुःखविनाशश्च संभवति। तस्मादेषा सर्वैः प्रयत्नेन स्वीकार्य्या ॥ २ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी स्त्री आपल्या इच्छेच्या अनुकूल पतीला किंवा पती आपल्या इच्छेच्या अनुकूल स्त्रीला प्राप्त करून परस्परांना आनंदित करतात तसे प्रयोजन सिद्ध करविण्यासाठी तत्पर असलेली विद्युत, पृथ्वी व सूर्यप्रकाश यांची विद्या ग्रहण करून पदार्थ प्राप्ती होते व सदैव सुखकारी असते. ही विद्या जाणणाऱ्याशिवाय येणे अवघड आहे; व दुःखाचा विनाशही होत नाही. त्यासाठी सर्वांनी ही विद्या प्रयत्नपूर्वक जाणावी ॥ २ ॥